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अन्ना का आन्दोलन: असलियत क्या है ?

loksangharsha
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मुझे इस बात की ख़ुशी है कि इस लोकसंघर्ष पत्रिका में कुछ लेखको ने अन्ना आन्दोलन के कई पहलुओं की आलोचना की है। भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन के नाम पर जिस तरह देश के लोगों को गलत रास्ते पर ले जाने की कोशिशें हो रही हैं उनसे सावधान रहने की जरूरत है।

इसमें कोई शक नहीं की हमारे देश में भ्रष्टाचार एक बड़ी समस्या बनती जा रही है और विकराल रूप धारण करती जा रही है। लेकिन इसके नाम बराबर और इसका आवरण लेकर एक ऐसी राजनीति और विचारधारा का बड़ी चालाकी से प्रचार किया जा रहा है जो हमें जर्मनी में हिटलर के दिनों की याद दिलाता है। जर्मनी में पूंजीवादी सरकार और व्यवस्था की कमजोरी का पूरा फायदा उठाकर नाजी पार्टी सत्ता में आयी। यहाँ हिटलर की बात क्यों कर रहे हैं ये आगे स्पष्ट हो जायेगा। हो सकता है की कुछ लोगों की दृष्टि में ये जरा ज्यादती होगी, लेकिन याद रहे इटली और जर्मनी में फासीवाद पूर्वोत्तर मिलते जुलते तरीके अपनाये।

अन्ना का गुट और आंदोलन मुख्य रूप से आरएसएस तथा संघ परिवार के बल पर बराबर चल रहा है, इसमें कोई दो राय नहीं है. अन्ना के पिछले आंदोलन में (अन्ना I में) ये साफ़ हो गया था कि नरेंद्र मोदी, आडवाणी और पूरा संघ परिवार इसका सञ्चालन कर रहा है। उस समय अन्ना ने नरेंद्र मोदी की जमकर तारीफ भी की थी। इस समय लगता है की जरा सावधानी बरती जा रही है, और हाँ यह और भी खतरनाक है। इसलिए अपने दूसरे संस्करण (अन्ना द्वितीय) में अन्ना और उनके सहयोगी, खासकर उनके पीछे उनका निर्देशन करनेवाली ताकतें बड़ी चालाकी से थोड़ा स्वर बादल कर बातें पेश कर रही हैं।

सबसे पहले ये पूछना चाहेंगे कि अन्ना कर्नाटक, गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में चल रहे असीम भ्रष्टाचार पर बराबर चुप्पी क्यों साधे हुए हैं ? वे क्यों चुप हैं कि गुजरात के मुख्यमंत्री पिछले ९ वर्षों से लोकायुक्त की नियुक्ति का विरोध कर रहे हैं? अन्ना कहाँ थे जब कर्नाटक का तमशा चल रहा था ? वहीँ जाकर उन्होंने भूख ‘हड़ताल’ क्यों नहीं कर डाली, जिसका उन्हें इतना शौक है?! राम मंदिर के नाम बराबर ज़मा किये गए अरबों रुपये कहाँ गए? क्या जवाब है?

बीजेपी के इन राज्यों की बात हम इसलिए कर रहें हैं क्योंकि बीजेपी इस समय सबसे सक्रिय रूप से आन्दोलन का समर्थन और सञ्चालन कर रहा है। कहाँ से आ रहें हैं पैसे आन्दोलन चलने के लिये?
सिविल सोसाइटी या नागरिक समाज और संसद : मीडिया की भूमिका

सिविल सोसाइटी के प्रति बड़ा प्रेम उमड़ आया है अन्ना आन्दोलन में। कहाँ हैं वे मजदूर, किसान, भूखे, खेत मजदूर इत्यादि इसमें जिनको दो जून खाना नहीं मिलता? इसमें सिर्फ बड़े बड़े धनी, कमाऊ, उपरी मध्यम तबकों के लोग ही क्यों शामिल हैं? है कोई जवाब? यहाँ वर्ग विभेद साफ़ दीखता है. एन.आर.आइ भी कूद पड़े हैं भ्रष्टाचार के खिलाफ , और इन्कोम टैक्स छुपाने वाले बड़े बड़े फ़िल्मी कलाकार तथा अन्य कई लोग भी।

तो इस नागरिक समाज में क्या सिर्फ धनी लोग ही शामिल हों? यही है परिभाषा सिविल सोसाइटी की? किसने आपको, कुछ थोड़े से, आधा दर्जन या एकाध दर्जन लोगों को पूरे समाज की ओर से बोलने का अधिकार दिया? पुछा आपने मेह्नात्काशो से? क्या पोस्को का आन्दोलन नागरिक समाज का नहीं है जिसमें आम आदमी हिस्सा ले रहा है? उसपर मीडिया क्यों चुप्पी साधे हुए है? और क्यों रात-दिन अन्ना आन्दोलन की ‘रनिंग कमेन्ट्री’ दे रहा है ? पिछले अन्ना I चरण में ही स्पष्ट हो गया था की बड़े मीडिया बरोंस (मालिकों) का बड़ा हिस्सा करोड़ों रुपये बहाकर इस आन्दोलन के पीछे खड़ा हो गया है। यह कैसे हो सकता है की कुछ टीवी चैनल रात दिन सिर्फ यही खबरें दें, और कोई दूसरी नहीं? इसके पीछे जरूर संगठित कोर्पोराते ताकतें हैं जो भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर हमारे देश की जनतांत्रिक व्यवस्था और सच्चे जन आन्दोलन को कमजोर बनाना चाहते हैं।

यह सभी जान चुके हैं की कुछ बड़े मीडिया मालिकों ने आपस में मिलकर यह तय किया था की वे हर तरह से अन्ना आन्दोलन को मदद और पब्लिसिटी देंगे उनकी कमेन्ट्री, उनके फ़ोन नंबर , उनकी लगातार गतिविधियों की खबरें टीवी पर आती रहती है। आम मज्द्दोरों के आन्दोलन को यह क्यों नसीब नहीं ? क्योंकि बड़े इजारेदार पूंजीपति अन्ना आन्दोलन का पूरा समर्थन कर रहे हैं।

नागरिक समाज आखिर कहते किसे हैं? ऐसा समाज वह होता है जिसमे समाज के आम लोग , बुद्धिजीवी , आम नागरिक मिलजुल कर समस्याओं विचार करते हैं। लेकिन इन करोड़ों लोगों को तो अलग कर दिया गया है। और इसमें सिर्फ वे ही बचते हैं जो फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते हुए कारों में घुमते हुए टाइम -पास के रूप में भ्रष्टाचार की बात करते हैं। जाइये और देखिये एक आम खदान मजदूर या रिक्शा वाला कैसे इस व्यवस्था से पीड़ित है।

यहाँ आती है व्यवस्था की बात । और आज आर्थिक व्यवस्था के शीर्ष पर हैं अम्बानी और बिरला जैसे इजारेदार। मजेदार बात है की इस पर तो अन्ना आन्दोलन बिलकुल चुप्पी साधे हुए है । आखिर क्यों ? किसका हित साधन कर रहे हैं वे ? एक शब्द भी उन्हों ने नहीं कहा है इन बड़े बड़े उद्यमियों, कारोबारी घरानों और फिनांस या वित्त पूँजी के खिलाफ। क्या बिना बड़े पूंजीपतियों पर रोक लगाये आप भ्रष्टाचार रोक सकते हैं ? एक भी आर्थिक मुद्दा नहीं उठाया है इस आन्दोलन ने जिससे भ्रष्टाचार के मूल स्रोत को बंद किया जाये। हम यह तो नहीं मान सकते की अन्ना और उनके सहयोगी इसके बारे में अनभिज्ञ हैं ।

जनतंत्र पर चोट

यह आन्दोलन जेपी आन्दोलन की याद दिलाता है , जो एक दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी आंदोलन था। उसने संपूर्णा क्रांति और दलविहीन जनतंतरा का नारा दिया था. अन्ना आंदोलन अन्या तरीकों, नारों और रास्ते से वे ही उद्देश्या अपना रहा है. इसके प्रवक्ता कहते हैं की हम हैं जो संसद के बजे कम करेंगे. अभी संसद चल रही है. इनके समर्थक उसमे मौजूद हैं. क्यों नहीं वे इन्ही सवालों को सही तरीकों से उठाते? इसके तरीके हैं, और आंदोलन के नेता और नागपुर में मौजूद उनके संघ परिवार के सलाहकार अच्छी तरह जानते हैं की क्या तरीके होते हैं. फिर आप सीधे तौर पर कैसे संसद कोई बिल पेश कर सकते हैं? क्या बीजेपी की सरकार के समय इसका सवाल उठाया गया था और क्यों नहीं? अभी ही क्यों? लोकपाल बिल पर कीजिए बहस बहुत सारे सुधारों की ज़रूरत हैं उसमें। लेकिन यह कैसी बात है की आप सामानातार संसद चलाना चाहते हैं? और जब बहस चल रही है तो आप उसमे बहस नहीं होने देना चाहते हैं? कौन हैं इस सारी चाल के पीछे?

हम इस लेख के ज़रिए लोगों को आगाह करना चाहते हैं की इसके पीछे ना सिर्फ़ देश के बड़े पूंजीपति और व्यापारी बल्कि विदेश, ख़ासकर अमरीका के हित सक्रिया हैं। अमरीका अब भारत में वही नीति लागू करना चाहता है, धमकी वाली नीति, “यह करो, ऐसा करो, वरना…”। अख़बारों में अमेरिका से चेतावनी आए है की इस आंदोलन के प्रति कोई सख्ती ना बरती जाए. अमरीका को क्यों दिलचस्पी है इसमे? और क्यों नहीं उसे दिलचस्पी है जब आम आदमी भूखों मरता है? जाहिर है, तार कहीं ना कहीं जुड़े हुए हैं. कहीं ऐसा तो नहीं की सोनिया बीमार हैं तो उसका फायदा उठाया जा रहा हो? हमें सावधान रहने की ज़रूरत है. यह सॉफ है की अमरीका इस आंदोलन के पक्षों में दिलचस्पी ले रहा है. दूसरे शब्दो में वा भारतिया संसदिया प्रणाली के विरोध में दिलचस्पी ले रहा है.

अमरीका काफ़ी समय से भारत के टुकड़े करने की नीति पर चल रहा है. उसके समर्थक यहाँ की कमज़ोरियों का भरपूर फायदा उठा रहे हैं. यहीं से फॅसिज़म शुरू होता है. और हमारे देश में संप्रदायिक-फॅसिज़म मौजूद है. और वही इस आंदोलन की मुख्या रीढ़ है.

आंदोलन पार्टियों की भूमिका कमजोर करने की कोशिश कर रहा है. याद रहे, वो सिर्फ़ सरकार बदलने की ही नहीं बल्कि राजनैतिक व्यवस्था बदलने की बातें कर रहा है. इसका मतलब? यदि वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था बदलतें हैं तो कौन सी ला रहे हैं? पार्टी-विहीन? प्रधान मंत्री विहीन? तानाशाही? या अर्ढा तानाशाही? उसकी जगह तथाकथित ‘नागरिक समाज’ को लाना चाहते हैं क्या? अर्थात इन कुछ मुट्ठी भर सा-नियुक्ता ‘जान प्रतिनिधियों’ को? यही अर्थ निकलता है, और कोई नहीं, और इसे छिपाने की कोशिश की जा रही है. किसने चुना इन्हे?
सबसे अच्छा होता यदि इनमे शामिल लोग पहले अपना भ्रष्टाचार, अपनी भ्रष्ट छवि दूर कर लेते। इनमे से ज़्यादातर खुद भरषटाचार में लिपटा हैं. कौन जवाब देगा इस बात का?

कॉंग्रेस की भूमिका

इस पूरे प्रकरण में कॉंग्रेस की भूमिका अत्यंता ही कमजोर, लचर और दिशाहीन साबित हो रही है। इसमे दो राय नहीं की इधर एक से एक स्कॅम और भ्रष्टाचार के कांड सामने आ रहे हैं. कॉंग्रेस इन्हे रोकने के लिए कुछ भी करने को तैयार नहीं. इस प्रकार कॉंग्रेस इन जनतंतरा-विरोधी शक्तियों को मौका ही दे रही है. भ्रष्टाचार का मुख्या कारण निहित स्वार्थों को बढ़ावा है, और कॉंग्रेस उन्हे खुला मौका दे रही है।

भ्रष्टाचार डोर करने का तरीका वैकल्पिक आर्थिक नीति और निहित स्वार्थों पर चोट है. कॉंग्रेस गले तक भ्रष्टाचार में डूबी हुई है. भले ही प्रधान मंत्री स्वयं इससे दूर हों, लेकिन उन्हों ने ऐसे लोगों को बढ़ावा दे रखा है जो ग़लत तरीकों से काम धन इकट्ठा कर रहे हैं.

जे.पी आंदोलन की छाप

अभी हाल में अन्ना टीम के कुछ सदस्यों ने कई सवालों पर अन्ना के खिलाफ आपत्ति उठाने लगे हैं। मसलन, अरुणा रॉय ने सॉफ कहा है की इस आंदोलन में संघ परिवार का बोलबाला है। यह बिल्कुल सही है. संघ परिवार इस आंदोलन को अपने नियंत्रण में रखकर चला रहा है. आश्चर्या की बात है की गाँधी के हत्यारे गाँधी का ही नाम लेकर आज भ्रष्टाचार के खिलाफ झूठे नारे लगा रहे हैं. कहाँ थे वे जब बाजपई सरकार में सेठ साहूकार और नेता देश का धन लूट रहे थे? तिरंगा झंडा का विरोध करने वेल आज तिरंगा झंडा लहराते हुए भ्रष्टाचार विरोधी नारे लगा रहे हैं. इनसे सावधान रहने की ज़रूरत है.

जेपी आंदोलन में दल विहीन जनतंतरा और संपूर्णा क्रांति का नारा दिया गया था जो वास्तव में भारतीय जनतंत्र पर दक्षिण पंथी प्रतिक्रियावादी हमला था। आज अन्ना को आगे रखकर देश के राजनैतिक तंत्र के समानांतर कुछ लोगों द्वारा नागरिक समाज के नाम पर एक अलग तंत्र कायम करने का अभियान चलाया जा रहा है. इसमे मुख्या वर्गिया निहित स्वार्थों का बचाव किया जा रहा है. और अब तो भ्रष्टाचार के अलावा अन्या कई सवाल भी जोड़े जा रहे हैं। अर्थात आंदोलन का इरादा दूरगामी है.

मेधा पाटकर और अरुंधती रॉय भी आंदोलन के विरोध में आ गयीं हैं.

आंदोलन का चरित्रा इस बात से स्पष्ट हो जाता है की उसे कौन चला रहा है, कौन उसकी मुख्या प्रेरका और सक्रिया शक्ति है. आर.एस.एस इस बार बड़ी चालाकी से काम ले रहा है. इसके अलावा उप और देश के अन्या हिस्सों में मुसलमान घबराए हुए हैं की संघ परिवार फिर उनके खिलाफ सक्रिया ना हो जाए. संप्रदायिक तनाव बढ़ता जा रहा है.

वामपंथी शक्तियाँ को अन्ना आंदोलन के असली वर्ग और निहित चरित्र का सॉफ विश्लेषण करके उन्हे उजागर करना चाहिए।

अनिल राजिमवाले

सुप्रसिद्ध लेखक चिन्तक व सिद्धांतकार

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