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असुरों के वंशज ही अपने पूर्वजों के नरसंहार का उत्सव में निष्णात!

loksangharsha
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भारत के राष्ट्रपति हिंदू हैं और कुलीन ब्राह्मण। उनेक राष्ट्रपति बनने पर बांग्ला मीडिया ने इस पर बहुत जोर दिया। क्यों?राष्ट्रपति के हिंदुत्व पर दुनियाभर का मीडिया फोकस कर रहा है। अखब।र नहीं निकल रहे हैं तो क्या, संवाददाताओं और कैमरामैन प्रणव​मुख्रजी की पूजा कवर करने के लिए तैनात हैं। क्या यही धर्म निरपेक्ष भारत की सही छवि है?मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के तमाम सहयोगी पूजा उद्घाटन में व्यस्त हैं।मंत्री, सांसद, विधायक पूजा कमिटियों के कर्ता धर्ता हैं। ऐसा पहली बार हो रहा है।उत्तरी बंगाल में आज भी असुरों के उत्तराधिकारी हैं। जो दुर्गोत्सवके दौरान अशौच पालन करते हैं। उनकी मौजूदगी साबित करती है कि महिषमर्दिनी दुर्गा का मिथक बहुत पुरातन नहीं है। राम कथा में दुर्गा के अकाल बोधन की चर्चा जरूर है, पर वहां  वे महिषासुर का वध करती नजर नहीं आतीं। जिस तरह सम्राट बृहद्रथ की हत्या के बाद पुष्यमित्र के राज काल में तमाम महाकाव्य और स्मृतियों की रचनी हुई प्रतिक्रांति की जमीन तैयार करने के लिए। और जिस तरह इसे हजारों साल पुराने इतिहास की मान्यता दी गयी, कोई शक नहीं कि अनार्य प्रभाव वाले आर्यावर्त की सीमाओं से बाहर के तमाम शासकों के हिंदूकरण की प्रक्रिया को ही महिषासुरमर्दिनी का मिथक छीक उसी तरह बनाया गया , जैसे शक्तिपीठों के जरिये सभी लोकदेवियों को सती के अंश और सभी लोक देवताओं को भैरव बना दिया गया। वैसे भी बंगाल का नामकरण बंगासुर के नाम पर हुआ। बंगाल में दुर्गापूजा का प्रचलन सेन वंश के दौरान भी नहीं था। भारत माता के प्रतीक की तरह अनार्य भारत के आर्यकरण का यह मिथक निःसंदेह तेरहवीं सदी के बाद ही रचा गया होगा। जिसे बंगाल के सत्तावर्ग के लोगों ने बांगाली ब्राहमण राष्ट्रीयता का प्रतीक बना दिया।​विडंबना है कि बंगाल की गैरब्राह्मण अनार्य मूल के या फिर बौद्ध मूल के बहुसंख्यक लोगों ने अपने पूर्वजों के नरसंहार को अपना धर्म मान लिया। बुद्धमत में कोई ईश्वर नहीं है, बाकी धर्ममतों की तरह। बौद्ध विरासत वाले बंगाल में ईश्वर और अवतारों की पांत अंग्रेजी हुकूमत के दौरान बनी, जो विभाजन के बाद जनसंख्या स्थानांतरण के बहाने अछूतों के बंगाल से निर्वासन के जरिये हुए ब्राह्मण वर्चस्व को सुनिश्चित​करने वाले जनसंख्या समायोजन के जरिये सत्तावर्ग के द्वारा लगातार मजबूत की जाती रहीं।
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी हर साल की तरह इस साल भी नवरात्रि के मौके पर पश्चिम बंगाल के बीरभूमि जिले के मिरीती गांव में मौजूद अपने पैतृक निवास जा रहे हैं। बीरभूमि के जिलाधिकारी ने जानकारी दी है कि मुखर्जी शनिवार को दोपहर में कोलकाता से 240 किलोमीटर की दूरी पर मौजूद अपने गांव हेलीकॉप्टर से पहुंचेंगे। तय कार्यक्रम के मुताबिक राष्ट्रपति 23 अक्टूबर तक अपने पैतृक गांव में रहेंगे। मुखर्जी अपने गांव में दुर्गापूजा में बतौर मुख्य पुजारी शामिल होंगे। प्रणब के करीबी लोग अंदाजा लगा रहे हैं कि शायद प्रणब खुद प्रोटोकॉल तोड़कर गांव वालों के बीच घुलेंगे मिलेंगे और पूजा करेंगे। प्रणब पश्चिम बंगाल के हैं और वहां दुर्गापूजा का अलग ही महत्‍व है। बंगाल की जया भादुड़ी बच्‍चन भी हैं और वह भी मुंबई में बंगाली अंदाज में ही दुर्गापूजा मनाती हैं। लेकिन इस बार वह ऐसा नहीं कर पाएंगी।
तनिक इस पर भी गौर करें!

महिषमर्दिनी ;बक्रेश्वरम्द्धण् अधि विकिपीडियाए एकः स्वतन्त्रविश्वविज्ञानकोशण् गम्यताम् अत्र रू पर्यटनम्ए अन्वेषणम्ण् महिषमर्दिनी ;बक्रेश्वरम्द्ध एतत् पीठं भारतस्य पश्चिमबङ्गालस्य बदहाममण्डले विद्यमानेषु शक्तिपीठेषु अन्यतमम् ।
दुर्गा पार्वती का दूसरा नाम है। हिन्दुओं के शाक्त साम्प्रदाय में भगवती दुर्गा को ही दुनिया की पराशक्ति और सर्वोच्च देवता माना जाता है ;शाक्त साम्प्रदाय ईश्वर को देवी के रूप में मानता है । वेदों में तो दुर्गा का कोई ज़िक्र नहीं है, मगर उपनिषद में देवी उमा हैमवती ;उमा, हिमालय की पुत्रीद्ध का वर्णन है । पुराण में दुर्गा को आदिशक्ति माना गया है । दुर्गा असल में शिव की पत्नी पार्वती का एक रूप हैं, जिसकी उत्पत्ति राक्षसों का नाश करने के लिये देवताओं की प्रार्थना पर पार्वती ने लिया था .. इस तरह दुर्गा युद्ध की देवी हैं । देवी दुर्गा के स्वयं कई रूप हैं । मुख्य रूप उनका गौरी है, अर्थात शान्तमय, सुन्दर और गोरा रूप । उनका सबसे भयानक रूप काली है, अर्थात काला रूप । विभिन्न रूपों में दुर्गा भारत और नेपाल के कई मन्दिरों और तीर्थस्थानों में पूजी जाती हैं । कुछ दुर्गा मन्दिरों में पशुबलि भी चढ़ती है । भगवती दुर्गा की सवारी शेर है ।उग्रचण्डी दुर्गा का एक नाम है। दक्ष ने अपने यज्ञ में सभी देवताओं को बलि दीए लेकिन शिव और सती को बलि नहीं दी। इससे क्रुद्ध होकर, अपमान का प्रतिकार करने के लिए इन्होंने उग्रचंडी के रूप में अपने पिता के यज्ञ का विध्वंस किया था। इनके हाथों की संख्या १८ मानी जाती है। आश्विन महीने में कृष्णपक्ष की नवमी दिन शाक्तमतावलंबी विशेष रूप से उग्रचंडी की पूजा करते हैं।
बाजारविरोधी दीदी के मां माटी मानुष राज में बाजार बम बम है और चहुं दिशाओं में धर्मध्वजा लहरा रहे हैं।नवजागरण के समय से बंगाल में विज्ञान और प्रगति की चर्चा जारी है। नवजागरण के मसीहा जमींदारवर्ग से थे या फिर अंग्रेजी हुकूमत के खासमखास।ज्ञान तब भी कुलीन तबके से बाहर के लोगों के लिए वर्जित था। औद्योगिक क्रांति और पाश्चात्य शिक्षा के असर में विज्ञान और प्रगति का दायरा भी इसी वर्ग तक सीमित रहा। जैसा कि पूंजी और एकाधिकारवादी वर्चस्व के लिए विज्ञान और वैज्ञानिक आविष्कार अनिवार्य है ताकि उत्पादन प्रणाली में श्रम और श्रमिक की भूमिका सीमाबद्ध या अंततः समाप्त कर दी जाये। पर पूंजी और बाजार के लिए ज्ञान और विज्ञान को भी सत्तावर्ग तक सीमित करना वर्गीय हितों के मद्देनजर अहम है।ईश्वर , धर्म और आध्यात्मिकता कार्य परिणाम के तर्क और स्वतंत्र चिंतन का निषेध करती हैं, जिससे विरोध, प्रतिरोध  या बदलाव की तमाम संभावना शून्य हो जाती है। जर्मनी से अमेरिका गये आइन स्टीन को भी धर्मसभा में जाकर यहूदी और ईसाई, दोनों किस्म के सत्तवर्ग के मुताबिक धर्म और विज्ञान के अंतर्संबंध की व्याख्या करते हुए वैज्ञानिक शोध, आविष्कार और ज्ञान के लिए अवैज्ञानिक, अलौकिक प्रेरणा की बात कहनी पड़ी। बंगाल में ३५ साल के प्रगतिवादी वामपंथी शासन दरअसल बहुजनों, निनानब्वे फीसद जनता के बहिष्कार के सिद्धांत के मुताबिक ही जारी रहा। साम्यवाद की वैश्विक दृष्टि बंगाली ब्राह्मणवाद के माफिक बदल दी जाती रही।वाममोर्चा की सरकार​ब्राह्मणमोर्चा बनकर रह गयी। जो दुर्गोत्सव सामंतों और जमीदारों की कुलदेवियों की उपासना तक सीमाबद्ध था, प्रजाजनों पर अपने उत्कर्ष साबित करने काए वह सामंतों के अवसान और स्वदेशी आंदोलन के जरिये सार्वजनिक ही नहीं हो गया, क्रमशः बंगीय और भारतीय हिंदू राष्ट्रवाद का प्रतीक बन गया। वाम शासन ने इसपर सांस्कृतिक मुलम्मा चढ़ाते हुए बंकिम की भारत माता और वंदेमातरम के हिंदुत्व का स्थानापन्न बना दिया। ममता राज में इसी बंगीय वर्चस्ववादी परंपरा की उत्कट अभिव्यक्ति देखी जा रही हैए जब दुर्गोत्सव के दरम्यान लगातार दस दिनों तक सरकारी दफ्तर बंद रहेंगे। सूचना कर्फ्यू के तहत चार दिनों के लिए कोई अखबार नहीं छपेगा और टीवी पर चौबीसों घंटा पूजा के बहाने बाजार का जयगान!
इतिहास की चर्चा करने वालों को बखूब मालूम होगा कि वैदीकी सभ्यता का बंगाल में कोई असर नहीं रहा है और न यहां वर्ण व्यवस्था का वजूद रहा है। ग्यरहवीं सदी तक बंगाल में बुद्धयुग रहा। सातवीं शताब्दी में गौड़ के राजा शशांक शाक्त थे। शाक्त और शैव दो मत प्राचीन बंगाल में प्रचलित थे, जो लोकधर्म के पर्याय हैं, और जिनका बाद में हिंदुत्वकरण है।डिसकवरी आफ इंडिया में नेहरू ने भी वर्ण व्यवस्था को आर्यों की अहिंसक रक्तहीन क्रांति माना और तमाम इतिहासकार इसके जरिये भारत के एकीकरण की बात करते हैं। वामपंथी नेता कामरेड​नंबूदरीपाद वर्ण व्यवस्था को आर्य सभ्यता की महान देन बताते थे। बंगाल में पाल वंश के पतन के बाद कन्नौज के ब्राह्मणों को बुलाकर सेनवंश के कर्नाटकी मूल के  राजा बल्लाल सेन ने ब्राह्ममी कर्मकांड और पद्धतियां लागू कीं। पर उनका शासलकाल खत्म होते न होते उनके पुत्र​लक्ष्मण सेन ने पठानों के आगे खुद को पराजित मानते हुए गौड़ छोड़कर भाग निकले। तो इस हिसाब से ब्राह्मणी तंत्र लागू करने के लिए बल्लालसेन के कार्यकाल के अलावा बाकी कुछ नहीं बचता। पठानों और मुगलों के शासनकाल में ब्राह्मण सत्ता वर्ग में शामिल होने की कवावद जरूर करते रहे। बंगाल में जो धर्मांतरण हुआए जाहिर है , वह बौद्ध जन समुदायों का ही । जो हिंदू हु, वे सीधे अछूत बना दिये गयेए सेन वंश के​दौरान। मुसलमान शासनकाल में इन अछूतों ने और जो बौद्ध हिंदुत्व को अपनाकर अछूत बनने को तैयार न थे, उन्होंने व्यापक पैमाने पर इस्लाम को कबूल कर लिया।हिंदू कर्मकांड के अधिष्ठाता विष्मु का तो मुसलमानों के आने से पहले नामोनिशान न था। इस्लामी शासनकाल में पांच​सौ साल पहले चैतन्य महाप्रभु के जरिए वैष्णव मत का प्रचलन हुआ और उनके खास अनुयायी नित्यानंद ने बंगाल की गैर हिंदू जनता​का वैष्णवीकरण किया। बंगाल ही नही, उत्तरप्रदेश, बिहार और पंजाब को छोड़कर बाकी भारत में तेरहवीं सदी से पहले वैदिकी सभ्यता का कोई खास असर नहीं था।व्ध्यि और अरावली के पार स्थानीय आदिवासी शासकों का क्षत्रियकरण के जरिए हिंदुत्व का परचम लहराया गया। लेकिन पूर्व और मध्य भारत में सत्रहवीं सदी तक अनार्य या फिर अछूत या पिछड़े शासकों का राज है। इसी अवधि को तम युग कहते हैंए जब महाराष्ट्र के जाधव शासकों और बंगाल के पाल राजाओं तक मैत्री संबंध थेए जब चर्या पद के जरिये भारतीय भाषाएं आकार ले रही थी।

आलोकसज्जा की आड़ में अंधकार के इस उत्सव में हम भी चार दिनों तक खामोश रहने को विवश हैं। घर का कम्प्यूटर खराब है और इन चार दिनों में बाहर जाकर काम करने के रास्ते बंद हैं। कहीं कुछ भी हो जाये, हम अपना मतामत दर्ज नहीं कर सकते। वैसे भी बंगाल में मीडिया को बाकी देश की सूचना देने की आदत नहीं है। नीति निर्धारण की किसी प्रक्रिया के बारे में पाठकों को अवगत कराने की जवाबदेही नहीं है। अर्थ व्यवस्था के खेल को बेनकाब करने के बजाय आर्थिक सुधारों के अंध समर्थन अंध राष्ट्रवाद के मार्फत करते रहने की अनवरत निरंतरता है।पार्टीबद्ध प्रतिबद्धता के साथ। अखबार छपें , न छपें, इससे शायद कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। कम से कम चार दिनों तक बलात्कार,​अपराध और राजनीतिक हिंसा की खबरों से निजात जरूर मिल जायेगी। दीदी खुद इल खबरों से परेशान हैं और जब तब मीडिया को नसीहत देते हुए धमकाती रहती हैं। उनका बस चले तो सरकार की आलोचना के तमाम उत्स ही खत्म कर दिये जायें। मजे की बात है कि​अखबारों के दफ्तरों में अवकाश नहीं होगा। पर संस्करण नहीं निकलेगा। पत्रकारं गैरपत्रकारों को आकस्मिक, अस्वस्थता या फिर अर्जित अवकाश लेकर सेवा की निरतंतरता बनाये रखनी होगी। प्रबंधन के मुताबिक वे अखबार बंद नहीं कर रहे हैं , बल्कि हाकरों ने अखबार उठाने से मना कर दिया है।जाहिर है कि इस पर ज्यादा बहसकरने की गुंजाइश नहीं है कि अचानक हाकर दुर्गोत्सव के दौरान अखबार उठाने से मना क्यों कर​रहे हैं और उनके पीछे कौन सी राजनीति है। पत्रकारों और गैरपत्रकारों के लिए वेतन बोर्ड की सिफारिशें लागू करने के लिए दीदी दिल्ली में आवाज बुलंद करने से पीछे नहीं हटतीं। पर राज्य में बाहैसियत मुख्यमंत्री मीडिया कर्मचारियों के हित में उन्होंने कोई कदम उठाया हो या वेतनमान लागू करने के लिए अखबार मालिकों से कहा होए ऐसा हमें नहीं मालूम है। जबकि अनेक अखबारों के कर्णधार उनके खासमखास हैं और कई संपादक​मालिक तो उनके सांसद भी हैं।कम से कम उन मीडिया हाउस में कर्मचरियों के लिए हालात बेहतर बनाने में उन्हें कोई रोक नहीं सकता।
-पलाश विश्वास

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